चैरिटी से सूख रहा है स्त्रोत : सुलभ इंटरनेशनल

चैरिटी से सूख रहा है स्त्रोत : सुलभ इंटरनेशनल

सुलभ इंटरनेशनल समाजिक सेवा संगठन चैरिटी के विस्तार की वजह से आर्थिक दबाव में है। चालीस साल पुराने संगठन में ऐसा पहली बार हुआ है जब संगठन के अंदर चैरिटी के लिए बाहर से धन लिया जाए या नहीं इसपर गहन विमर्श हो रहा है। अबतक सैनिटेशन के काम से संस्था को हो रहे आर्थिक लाभ के हिस्से से चैरिटी का काम किया जाता रहा है। संगठन के चेयरमैन पद्म विभूषण डॉ. बिन्देश्वर पाठक के मुताबिक चैरिटी की तौर पर संस्था की ओर से मैला उठाने वाली महिलाओं को आर्थिक अनुदान, पुनर्वास व सामाजिक सहयोग मुहैया कराया जा रहा था। सुप्रीम कोर्ट की सलाह पर वृंदावन और वाराणसी के विधवा आश्रमों में रहने वाली महिलाओं के लिए आर्थिक अनुदान और शैक्षणिक कार्यक्रम चलाया गया। हाल में केदारनाथ घाटी के आपदा पीड़ित देवली गांव को गोद लिया है। इन सब पर आमदनी से ज्यादा खर्च होने लगा है। कई अंतर्राष्ट्रीय सम्मानों से नवाजे गए पद्म विभूषण डॉ. पाठक की गणना मिशनरी पुरुष हैं। देश में सार्वजनिक शौचालयों की संस्थापना के जनक हैं। 1973 से ही वह अपने अभियान को व्यपकता देने में लगे है। सुलभ की योजना देश के सभी प्रखंड में सार्वजनिक शौचालय बनाने की लिए बड़ा अभियान छेड़ने की है। अभियान में ऊर्जावान युवाओं को जोड़ने के लिए सार्वजनिक शौचालय बनाने को विशेष प्रतिष्ठा दी जाएगी। इसके लिए सुलभ का सुझाव है कि सार्वजनिक शौचालय बनाने वालों को डॉक्टर एफए यानी डॉक्टर फर्स्ट एड के नाम से पुकारे जाए। नए साल के आगाज से पहले नई दिल्ली के “फॉरेन प्रेस कल्ब” में हुए एक समारोह में डॉ. पाठक से खास बातचीत का मौका मिला। पेश है हमारे प्रबंध संपादक आलोक कुमार से सुलभ इंटनेशनल के संस्थापक से साक्षात्कार का प्रमुख अंश जिसमें उन्होंने संस्था के गौरवशाली इतिहास और नई चुनौतियों पर खुलकर चर्चा की।

सवाल- विधवाओ के पुनर्वास योजना को किस तरह इनज्वॉय कर रहे हैं ?
डॉ. पाठक :- यह सुलभ आंदोलन के लिए सौभाग्य की बात है कि सर्वोच्च न्यायालय ने विधवाओं की दुर्दशा पर सुनवाई के वक्त सुलभ को महत्व दिया। सरकार से सुलभ से पूछकर बताने को कहा गया कि हम बदहाल विधवाओं को खिलाने का इंतजाम कर सकती है या नहीं। न्यायमूर्ति के जेहन से इस नेक काम के लिए सुलभ का जिक्र होना हमारे लिए गौरव की बात है। हम मैला ढोने वाली महिलाओं को समाजिक हक दिलाने के लिए पहले से सक्रिय थे। सर्वोच्च न्यायालय ने समाज की परित्यक्ता बनकर जीने के विवश वृंदावन औऱ वाराणसी की विधवाओं की मदद के लिए हमें उतार दिया। यहां की आश्रमों में रहने वाली विधवाओं के लिए खाने- पीने, पहनने ओढने की समस्या के साथ अंतिम संस्कार तक में समुचित सम्मान नहीं मिलने की मुसीबत थी। सर्वोच्च न्यायालय में मरने के बाद इन विधवाओं के शरीर को बोटी बोटी कर यमुना में फेंके जाने के मामले की सुनवाई के लिए पहुंचा था। सुलभ के प्रयास से आज यहां के आश्रमों में रहने वाली विधवाओं को दो हजार रुपए प्रतिमाह का अनुदान दिया जा रहा है। हालत में बदलाव के लिए हिंदी, अंग्रेजी और बांगला में शिक्षा का इंतजाम किया गया है। पुनर्वास के अन्य जरूरी सुविधाओं का ख्याल रखा जा रहा है।

सवाल- आपकी संस्था केदारघाटी आपदा पीड़ितों के पुनर्वास में भी लगी है, क्या ?
डॉ. पाठक- हां, हम अग्रणी संगठन हैं जिसने आपदा के तुरंत बाद लोगों के पुनर्वास के काम को हाथ में ले लिया। केदारघाटी के देवली गांव को सुलभ ने गोद लिया है। यहां की विधवाओं, बच्चों के शिक्षा-दीक्षा, भोजन और पुनर्वास का इंतजाम किया जा रहा है। हर पीड़ित परिवार को अपनी ओर से आर्थिक मदद दे रहे हैं। बेसहारा पड़े बच्चे, युवाओं को स्कील ट्रेनिंग कार्यक्रमों से प्रशिक्षित किया जा रहा है, ताकि वो अपने पैर पर खड़े हो पाएं। देवली गांव के पुनर्वास काम की सफलता को देखकर आसपास के गांवों के पीड़ितों ने सुलभ को उनके बीच पहुंचने की मांग की हैं। यथाशक्ति हम उनकी मदद में भी लगे हैं पर हमारी भी सीमाएं हैं। चैरिटी की सीमा से बाहर जाने की वजह से यानी क्षमता से ज्यादा चैरिटी पर खर्च की वजह से हमारे संगठन पर संसाधन जुटाने का दबाव बढ गया है।

सवाल- यह दबाव अंदरुनी है या बाहरी। चैरिटी के लिए संसाधन कहां से जुटाती है आपकी समाजिक संस्था?
डॉ. पाठक- जाहिर तौर पर यह दबाव अंदरुनी है। पहली बार हम इस विमर्श में फंसे हैं कि चैरिटी के लिए बाहर से मदद ली जाए या नहीं। अगर बाहर से मदद नहीं ली गई तो अब और नहीं कहते हुए, हमें हाथ खड़े करने पड़ सकते हैं। चैरिटी के लिए मदद लेने से ज्यादा से ज्यादा जरुरतमंदों तक पहुंचने का रास्ता खुल सकता है। इस बारे में संगठन के अंदर बात विचार का क्रम जारी है। सुलभ इंटरनेशनल समाजिक संगठन का मूल काम सैनिटेशन के काम को बढावा देना है। इसमें हम तीन सौ करोड़ रुपए का व्यवसाय कर रहे हैं। आमदनी के तौर पर तकरीबन पच्चीस करोड़ रुपए सलाना की बचत होती है। बचत के इसी रकम से चैरिटी की जा रही है। जैसे कि मैला ढोने वाले समाज की औरतों को सम्मान दिलाने का काम, डेढ साल से वृंदावन औऱ वाराणसी का आश्रमों के विधवाओं को आर्थिक मदद पहुंचाने के काम के बाद अब केदारनाथ घाटी के आपदा पीड़ितों के बीच हम काम कर रहे हैं। इस तरह और भी कई क्षेत्र हैं, जिनके चैरिटी के काम को हाथ में लिया जा सकता है। या संवेदनशील होने की वजह से आने वाले समय में हमें उसे अपने हाथ में लेने को मजबूर होना पड़ सकता है। इस काम के लिए तन और मन के अलावा धन की जरूरत है। अंदरुनी तौर पर विकसित धन की सीमा है।

सवाल- देवालय से ज्यादा महत्वपूर्ण शौचालय के बयान से जयराम रमेश से लेकर नरेन्द्र मोदी तक विवाद में फंस चुके हैं। आप तो बयान के बजाए इसपर 1973 से काम कर रहे हैं। आप हर घर में शौचालय की जरूरत पर 40 साल बाद सरकार की व्यक्त सोच को आप किस रुप में लेते हैं?
डॉ. पाठक – हर हमारी जरूरत है। इस काम को सम्मानजनक तरीके से अंजाम तक पहुंचाना होगा। इसके लिए जरूरी है कि इसे मूर्तरुप देने वालों को आर्थिक सहयोग देने के साथ समाजिक प्रतिष्ठा दी जाए। यह करने में सम्मान का बोध हो। इसके लिए मेरा आरंभिक सुझाव था कि शौचालय बनाने में लगने वाले युवकों को डॉक्टर कहा जाए। डॉक्टरी पेशा से जुड़े लोगों ने इसपर एतराज किया है, तो मेरी राय है कि इन युवकों को डॉक्टर एफए यानी डॉक्टर फर्स्ट एड कहा जाए। इस काम को पूरा करने के लिए आंदोलन की जरूरत है। देश के प्रत्येक प्रखंड में बीस से पच्चीस युवकों को खड़ा करना होगा। उनके लिए प्रत्येक शौचालय के निर्माण पर आने वाली रकम का पंद्रह प्रतिशत लाभांश का इंतजाम करना होगा। सरकार की ओर से शौचालय के लिए उपलब्ध कराई जा रही राशि भी समुचित नहीं है। केंद्र सरकार को हमारी ओर से सुझाव है कि शौचालय के लिए सरल बैंक लोन का इंतजाम किया जाए ताकि लोग पांच हजार से लेकर पचास हजार का शौचालय बनवा सकें। पचास हजार के शौचालय में चालीस साल तक मल सफाई की जरूरत नहीं पड़ती है। संभव है कि सरल बैंक लोन से इसे ज्यादा से ज्यादा लोग अपनाएं।

सवाल- सुलभ को विस्तार देने के लिए आप क्या तरकीब अपनाना पसंद करते हैं ?
डॉ. पाठक- हमने शुरू से ही रामचरितमानस में तुलसीदास के बताए रास्ते को अपनाना पसंद किया है- “आबत हिय हरषे नाही, नयनन नाही सनेह। तुलसी तहां ना जाइए, कंचन बरसे मेह।।“ मतलब हमारी कोशिश होती है कि हम किसी के पास काम मांगने नहीं जाएं बल्कि जरूरतमंद हमें काम के लिए बुलाया जाए। ऐसा हम किसी अहंकार की वजह से नहीं बल्कि खुद को औरों से अलग साबित करने के लिए करते हैं। कुछ तो अलग होना चाहिए ना। यह हमारी यूएसपी है। वैसे आपने नहीं देखा होगा कि कोई पंडित कंधे पर तौलिया लिए आवाज लगा रहा हो, पूजा करा लीजिए। पूजा करा लीजिए। बल्कि जजमान ही पंडित को बुलाता है। पूजा कराने का आग्रह करता है। पूजा कराना जजमान की जरूरत हो, तो सम्मान और प्रतिष्ठा का भाव बढ जाता है। यह हमारे संस्कार का हिस्सा है। सुलभ की शुरूआत से ही हमने टेंडर या बीडिंग को कहीं पहुंचने का रास्ता नहीं बनाया। किसी प्रतियोगिता में शामिल होने के बजाय खुद के काम के बदौलत व्यवस्था को आकर्षित करने का यत्न किया है।

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