पिछले वर्ष इन्हीं दिनों की बात है। तारीख थी 17 सितम्बर। केन्द्र सरकार ने विदेशी अंशदान (विनियमन) संशोधन अधिनियम को नियंत्रित करने वाले नियमों में संशोधन की घोषणा की थी। नियमों में किए गए परिवर्तनों में, अन्य बातों के अलावा यह भी शामिल था कि किसी गैर-सरकारी संगठन के प्रत्येक प्रमुख सदस्य के लिए यह प्रमाणित करना अनिवार्य होगा कि वह-‘पदाधिकारी और प्रमुख कर्ताधर्ता और सदस्य’-किसी एक ‘आस्था’ वाले व्यक्ति की ‘आस्था’ या उसका रिलीजन परिवर्तित कराने के लिए न तो कभी ‘अभियोजित हुए हैं’ न ‘दोषी’ पाए गए हैं। अधिसूचना में यह भी कहा गया था कि किसी गैर-सरकारी संगठन के प्रत्येक सदस्य को शपथपत्र देना होगा कि वे ‘विदेशी धन’ को किसी अघोषित उद्देश्य में प्रयोग करने या ‘हिंसक साधनों के प्रयोग की पक्षधरता’ करने में शामिल नहीं रहे हैं। ध्यान दीजिए, एनजीओ के केवल प्रमुख सदस्यों को नहीं, बल्कि ‘प्रत्येक सदस्य’ को। नियमों में यह संशोधन इस कारण करना पड़ा था, क्योंकि सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों ने इन गैर-सरकारी संगठनों की गतिविधियों की जो रिपोर्ट तैयार की थी, उसमें-एफसीआरए का उल्लंघन, वामपंथी उग्रवादियों के साथ संबंध, जनजातीय समाज का ‘कन्वर्जन’, और स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट आफ इंडिया और जमात-ए-इस्लामी हिंद जैसे संगठनों के साथ संबंधों की बात कही गई थी। इतना ही नहीं, 2014 से एफसीआरए के विभिन्न प्रावधानों का उल्लंघन करने वाले लगभग 18,000 गैर सरकारी संगठनों से विदेशी योगदान प्राप्त करने की अनुमति वापस ले ली गई थी।
बात इतनी सरल नहीं थी। भारत सरकार की रिपोर्ट के अनुसार, 2016-17 के दौरान कुल 23,176 एनजीओ को 15,329.16 करोड़ रुपए विदेशों से प्राप्त हुए थे। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 19 वर्ष में भारत में सक्रिय विभिन्न गैर सरकारी संगठनों को 2 लाख 8 हजार 96 करोड़ रुपए का विदेशी फंड मिला है। आज की स्थिति में भारत में 22,447 ऐसे सक्रिय गैर सरकारी संगठन हैं, जो एफसीआरए के तहत पंजीकृत हैं। यह स्थिति तब है, जब बड़ी संख्या में गैर सरकारी संगठनों का एफसीआरए पंजीकरण समय-समय पर रद्द किया गया है।
पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने कभी संसद में कहा था कि ‘एनजीओ द्वारा लगभग 20,000 करोड़ रुपए का फंड प्राप्त किया गया था, लेकिन किसी को नहीं पता था कि इसमें से 10,000 करोड़ रुपये कहां खर्च किए गए।’ माने धंधा चोखा है।
अब इतना चोखा धंधा खुद को इतनी आसानी से तो बंद नहीं होने देगा। इस विदेशी पैसे से क्या होता है? प्रत्यक्ष उदाहरण से इसे समझिए। कोई एनजीओ, जिसके पास पैसे की कमी नहीं है, अपनी मनमर्जी काम करता रहेगा, चाहे वह कानून विरुद्ध ही क्यों न हो। लेकिन ऐसा करने के पहले, वह बड़ी संख्या में सेवानिवृत्त अधिकारियों, जजों, प्रभावशाली नेताओं आदि को अपने ‘बोर्ड या ट्रस्ट’ में शामिल कर लेगा। उनका काम कुछ खास नहीं होगा, लेकिन उन्हें मोटा वेतन देगा, जिसे ‘प्रशासनिक खर्च’ कहा जाएगा। अब अगर कानून उस पर कार्यवाही करने का प्रयास करेगा, तो वह इन सेवानिवृत्त नामचीन लोगों की फौज सामने कर देगा। ‘आंखों की शर्म’ और ‘वरिष्ठों के सम्मान’ की दुहाई प्रत्यक्ष-परोक्ष शब्दों में दी जाएगी, और कानून मुंह ताकता रह जाएगा। फिर भी अगर बात न बनी, तो कोई छोटा-मोटा कर्मचारी सारा दोष अपने सिर पर ले लेगा और वास्तविक कर्ताधर्ता साफ बच जाएंगे। अगर किसी भी बिन्दु पर आपको महसूस होता है कि देश की कार्यपालिका में, विधायिका में, न्यायपालिका में, मीडिया में, राजनीतिक प्रक्रियाओं में विदेशी पैसों से चल रहे एनजीओ का हस्तक्षेप बहुत भारी है, तो आपको सबसे पहले उस एनजीओ को मिले विदेशी पैसे की ओर देखना चाहिए।
यही कारण है कि तमाम धरपकड़ और कानूनी सख्ती के बावजूद बहुत सारे गैर-सरकारी संगठन और मिशनरी राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में शामिल रहे। इन मिशनरियों का व्यवहार कन्वर्जन के कारखानों जैसा है, और दीर्घकालिक उद्देश्य भारतीय समाज में विभाजनकारी रेखाओं को गहरा और चौड़ा करते जाने का है।
इसी को दूसरे ढंग से देखिए। दर्जनों एनजीओ विदेशों से इतना चंदा प्राप्त करें, जिसमें किसी भी एक एनजीओ को मिला चंदा बहुत बड़ा न लगे। लेकिन एक बार पैसा भारत पहुंच जाने के बाद वे अपनी रकम को एक बिन्दु पर एकत्रित कर लें। अब यह बड़ा पैसा भी हो जाएगा, विदेश से इसका सीधा संबंध भी नहीं होगा।
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मर्म पर प्रहार
लिहाजा सरकार ने इनके मर्म पर प्रहार किया है। संसद के दोनों सदनों से पारित विदेशी अंशदान (विनियमन) संशोधन विधेयक 2020 में गैर-सरकारी संगठनों के पंजीकरण के लिए आधार संख्या प्रस्तुत करना अनिवार्य कर दिया गया है। माने जिसे भी एनजीओ बनाकर देश का कोई हित करना है, वह कम से कम अपनी पहचान छिपाने की कोशिश न करे, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया था। हालांकि इससे उन गैर सरकारी संगठनों को बुरा लग सकता है, जो अपनी पहचान छिपाने को महत्वपूर्ण मानते हैं।
इसी का दूसरा पहलू। कई एनजीओ अपने आयकर के कागजात जमा नहीं करते। लेकिन अब आधार से जुड़ने के बाद उनके पास यह सुविधा नहीं रह जाएगी। इस विधेयक में विदेशी धन प्राप्त करने वाले किसी भी गैर-सरकारी संगठन के ‘प्रशासनिक खर्चोें’ पर अंकुश लगाया गया है। अब कोई भी गैर-सरकारी संगठन साल भर में अपने पैसे का अधिकतम 20 प्रतिशत तक हिस्सा ही ‘प्रशासनिक खर्चोें’ में खपा सकेगा। पहले यह सीमा 50 प्रतिशत थी। जाहिर है, एनजीओ के लिए उसका मुख्य उद्देश्य गौण था।
एक और महत्वपूर्ण बात-विधेयक में लोकसेवकों को विदेशों से धन प्राप्त करने पर रोक लगाने का भी प्रावधान है। किसी भी ढंग के ‘सेवानिवृत्त साहेबगण’ अभी भी किसी एनजीओ के ट्रस्ट आदि के सदस्य हो सकते हैं, लेकिन उन्हें मिलने वाली रकम उसी 20 प्रतिशत के अंदर होगी। इसके अलावा विदेशी धन प्राप्त करने के लिए सभी गैर-सरकारी संगठनों को अब भारतीय स्टेट बैंक, दिल्ली में एक खाता खोलना होगा। अब जब सारा विदेशी चंदा केवल भारतीय स्टेट बैंक की नई दिल्ली की एक नियत शाखा में ही पहुंचेगा, तो जाहिर तौर पर सरकार के लिए उस पर नजर रखना सरल हो जाएगा।
इसलिए हुआ संशोधन
इस संशोधन की जरूरत क्यों पड़ी, जबकि एफसीआर अधिनियम में 2010 में ही संशोधन किया गया था? वास्तव में यह विधेयक 2010 के कानून में महत्वपूर्ण परिवर्तन करता है। कई लोगों का मानना है कि पिछला अधिनियम भारत के आंतरिक मामलों में विदेशी हस्तक्षेप करने को एक कानूनी आधार प्रदान करता था। एनजीओ भारतीय मामलों पर, भारत भूमि पर मनमर्जी गतिविधियां कर रहे थे, जो हानिकारक भी थीं, लेकिन उन्हें कानूनी ढंग से रोकना संभव नहीं था। 1 जून 2018 को भारत सरकार के पत्र सूचना कार्यालय द्वारा जारी विज्ञप्ति के अनुसार, 2010-11 से 2016-17 तक एफसीआरए के तहत 1 लाख, 1 हजार 394 करोड़ रुपए का विदेशी पैसा विभिन्न गैर सरकारी संगठनों को प्राप्त हुआ था। तो क्या कोई आप पर उपकार कर रहा था?
आप स्वयं विचार करें, क्या कोई लाखों करोड़ रुपए आपको दान दे रहा था? मुफ्त कुछ होता ही नहीं है। यह विदेशी दान नहीं, निवेश था, जिसका उद्देश्य हमारे समाज को कई तरीकों से अपने अधीन करना, देश की जनसांख्यिकी में विभेदकारी परिवर्तन करना, देश के विभाजनों के लिए परिस्थितियों का निर्माण करना, सामाजिक अशांति को बढ़ावा देना, हमारी सामाजिक, आर्थिक और तकनीकी प्रगति में बाधाएं उत्पन्न करना था। इन में से प्रत्येक बिन्दु के दर्जनों उदाहरण दिए जा सकते हैं।
और यह दान देने वाले कौन थे? ठीक-ठीक ढंग से जानना कठिन है, ठीक उसी तरह, जैसे काले पैसे को ठिकाने लगाने के लिए कई बार सैकड़ों फर्जी कंपनियों की कतार खड़ी कर दी जाती है। इन एनजीओ को चंदा देने वालों में बड़ी संख्या में ऐसे विदेशी संगठन हैं जिनका या तो दूसरे देशों की सरकारों से सीधा संबंध था या ‘कथित नॉन स्टेट एक्टर्स’ से।
आप गौर कीजिए, भारत वह देश है, जिसने सुनामी जैसी आपदा पर भी विदेशी मदद लेने से इनकार कर दिया था। हाल ही में एक विदेशी वित्तीय संगठन द्वारा भारत को एक खरब डॉलर की ‘मदद’ देने की घोषणा की खबर आई। लेकिन उस घोषणा पर भारत सरकार ने कोई भी जवाब देना जरूरी नहीं समझा। बात सिर्फ पैसों की नहीं है, सरकार जानती है कि विदेशी सरकारों और विदेशी संस्थानों के वित्त पोषण का नक्शा कैसा होता है। नक्शा कैसा होता है, इसका एक अंदाजा ऐसे लगाया जा सकता है कि 2010 के अधिनियम में एक एनजीओ को मिला विदेशी पैसा किसी अन्य व्यक्ति को हस्तांतरित किया जा सकता था। माने वास्तव में यह 50 प्रतिशत भी काफी नहीं था। अब किए गए संशोधन का एक सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा यह है कि विदेश से मिला चंदा एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को हस्तांतरित नहीं किया जा सकेगा।
तीसरे ढंग से देखिए। कोई एक एनजीओ विदेश से भारी चंदा प्राप्त करे, और फिर वह तमाम छोटे संगठनों को बांट दे ताकि सभी बारी-बारी से अपने हिस्से का ‘काम’ कर सकें। एक विश्लेषण के अनुसार 2006 से 2011 के बीच एफसीआरए के तहत एक एनजीओ को मिले विदेशी चंदे का 10 से 15 प्रतिशत हिस्सा दूसरे ऐसे एनजीओ को पहुंचाया गया, जो देश के भिन्न क्षेत्रों में या भिन्न तरह का काम कर रहे थे। इन एनजीओ का ‘मालिक’ किसे माना जाए? जैसे ईसाइयत के नाम पर विदेशी चंदा दक्षिण भारत में सक्रिय एनजीओ को मिलता था, तो वह उसका एक हिस्सा, मान लीजिए पंजाब में सक्रिय एनजीओ को भेज देता था। इससे एनजीओ को अपनी समर्थक व्यवस्था बनाने में भी मदद मिलती थी।
लेकिन नए कानून में यह गोरखधंधा बंद कर दिया गया है। आश्चर्य की बात नहीं कि जिन्हें चोट लगी है, वह बहुत जोर से बिलबिला रहे हैं। भारत में भारतीय हितों के लिए न्यायिक क्षेत्र में सक्रिय एक संस्था-लीगल राइट्स आॅब्जर्वेटरी—के अनुसार नए संशोधनों के खिलाफ सबसे पहली आवाज उठाई अमिताभ बेहार ने। अमिताभ बेहार आॅक्सफैम इंडिया के सीईओ हैं। लेकिन साथ ही वह एक अन्य एनजीओ सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज के कोषाध्यक्ष भी हैं। सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज के कर्ताधर्ता हैं हर्ष मन्दर। इस एनजीओ को फ्रांसीसी और डेनमार्क की कैथोलिक चर्चों से करोड़ों रुपए मिले हैं। इसके पहले ही आॅक्सफैम इंडिया पर दिल्ली के दंगों में धन का दुरुपयोग करने का आरोप लग चुका है। दिल्ली दंगों में हर्ष मन्दर की भूमिका के तो वीडियो भी बहुत प्रचारित रहे हैं। इससे एनजीओ के लक्ष्यों, इरादों को समझने में बहुत मदद मिलती है।
उदाहरण असंख्य हैं। हिमाचल प्रदेश के ‘कन्वर्जन विरोधी कानून’ के खिलाफ अदालतों में जनहित याचिकाएं दायर की गई हैं। ये याचिकाएं दायर करने वाले खुद को गैर सरकारी संगठन कहते हैं। यह गैर सरकारी संगठनों की हिमाकत नहीं है, यह उन्हें विदेशों से मिले पैसों की, उनके राजनीतिक और अन्य तरह के संपर्कों की गर्मी है। सरकार को, जांच को, कानून को नकारना उनके स्वभाव में है। जैसे नवंबर 2019 में केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने एफसीआरए के कथित उल्लंघन के मामले में एमनेस्टी इंटरनेशनल के कार्यालयों पर छापा मारा। एमनेस्टी इंटरनेशनल ने क्या जवाब दिया? कुछ नहीं, बस आरोपों से इनकार कर दिया। तीन गैर सरकारी संगठनों द्वारा एफसीआरए 2010 के कथित उल्लंघन की जांच के लिए सरकार को अंतरमंत्रालयीन समिति बनानी पड़ी। ये तीन गैर सरकारी संगठन हैं-राजीव गांधी फाउंडेशन, इंदिरा गांधी मेमोरियल ट्रस्ट और राजीव गांधी चैरिटेबल ट्रस्ट। इन तीनों ने क्या जवाब दिया? कुछ नहीं, बस आरोपों से इनकार कर दिया। जाकिर नाइक ने लाखों का चंदा किसे दिया था, जो मामला खुल जाने पर वापस करना पड़ा था? है कोई जवाब? कौन है जाकिर नाइक और वह भारत से भागता क्यों फिर रहा है? है कोई जवाब? गैर सरकारी संगठनों का तंत्र इतना ढीठ है कि किसी दंगे में संलिप्तता पकड़े जाने पर भी किसी गैर सरकारी संगठन को लज्जा महसूस नहीं होती। वह सिर्फ चुप्पी साध कर बैठ जाता है और इतने को ही पर्याप्त मान लेता है। अब स्थिति यह है कि कानून को यह साबित करना पड़ रहा है कि भारत भूमि पर संप्रभुता भारत के कानूनों की है। और यह स्थिति शायद तब तक रहे, जब तक गैर सरकारी संगठनों की भारी-भरकम मशीनरी इन कानूनों में कोई छिद्र नहीं तलाश लेती। यह एक सतत युद्ध है।
ज्ञानेन्द्र बरतरिया (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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