‘‘बम्बई शहर की तुझको चल सैर करा दूं, आ तेरी हर एक शिकायत आज मिटा दूं’’ ऐसे ही कई मनभावन गानों से माहौल में गर्मजोशी बढ़ती जा रही थी और उसकी साइकिल के पहिए मैदान के चारो ओर बदस्तूर घूमते जा रहे थे। गोलाई में बैठे बच्चे बीच-बीच में तालियां भी बजाते थे क्योंकि एनाउंसर बार-बार उन्हें ऐसा करने को कहता था। दिलकश संगीत की आवाज सुनकर लोग-बाग भी साइकिल के इस अदभुत खेल को देखने आ रहे थे जो चार दिन और चार रात तक लगातार चलने वाला था। यह वह समय था जब मनोरंजन के लिए लोगों के सामने सीमित संसाधन होते थे। सर्कस और मदारी के खेल भी लोगों के लिए अजूबा हुआ करते थे।
रौनक नाम था साइकिल का करतब दिखने वाले का जो एक ग्रेजुएट था मगर नौकरी नहीं मिलने के कारण साइकिल चलाकर अपने परिवार का भरण-पोषण कर रहा था। उसका साथ दे रहा था उसके बचपन का दोस्त श्याम जो एनाउंसर बनकर तरह-तरह की आवाजें निकालकर रौनक के लिए दर्शकों की भीड़ जुटाता था। दोनो दोस्तों की जोडी को उनका ही एक साइकिल मिस्त्री बैजू स्पांसर करता था। यहां तक कि रौनक की रंग बिरंगी साइकिल भी बैजू की थी।
रौनक के चर्चे पूरे शहर में फैल गए थे। किसी फिल्मी हीरो की तरह वह हर शाम को साइकिल पर ही नहाता और कपड़े बदलता था। दर्शकों के लिए यह करतब बड़ा ही दिलचस्प होता था। लड़कियों का क्रेज कुछ ज्यादा ही बढ़ता जा रहा था। अपनी सहेलियों के साथ काॅलेज से लौटती रेणू की नजर जैसे ही उस बांके नौजवान पर पड़ती है वह एकटक निहारने लगती है। लड़कियों की यह टोली मैदान के करीब जाकर रौनक को देखने लगती है। श्याम मौके को भांपकर एक साथ कई रोमांटिक गाने लगा देता है।
‘‘क्या हुआ? हीरो संजय खान की तरह लगता है।’’ फरीदा ने रेणु को चिकोटी काटते हुए कहा।
‘‘सचमुच! जरूर किसी मजबूरी की वजह से इसने इतना जोखिम भरा रास्ता चुना है।’’ रेणु आह भरकर बोलती है।
‘‘चलो देर हो रही है।’’ नूतन बोल पड़ी।
खेल का अंतिम दिन। दर्शकों से मैदान भर गया। सबसे आगे की कुर्सियों पर शहर के जाने माने नेता, आॅफिसर और उनके परिवार के लोग बैठे हुए थे। रेणू भी आगे वाली सीट पर अपनी माता के साथ बैठी थी क्योंकि उसके पिता विश्वंभर दुबे इस शहर के एस डी ओ थे। रौनक अपने निर्धारित समय पर जैसे ही साइकिल से उतरता है जनता पागलों की तरह उसपर फूलों का बौछार कर देती है। उसे नकद और कई पारितोषिक भी मिलते हैं। उसके सम्मान में एक रात्रि भोज का भी आयोजन होता है जहां रेणू आकर उससे मिलती है।
‘‘साइकिल चलाना आपका शौक है या पेशा!’’ रेणू पूछती है।
‘‘बचपन से साइकिल चलाता आ रहा हूं। अभी तक मैं भी समझ नहीं पाया कि साइकिल मेरी रोजी-रोटी है या कुछ और। आप इसमे मेरी कोई हेल्प कर सकती हैं तो मुझे बड़ी खुशी होगी।’’ हंसकर रौनक बोला। रेणु झेंप जाती है।
‘‘आप कब तक हैं हमारे शहर में।’’
‘‘कल तक। थोड़ा रेस्ट कर लूं फिर कोई और ठिकाना ढ़ंूढेंगे।’’ पार्टी खत्म हो जाती है परंतु रेणू की रात नहीं कटती। अगली सुबह अपने मम्मी-पापा से कहती है कि उसे रौनक पसंद है। पढ़ा-लिखा है। उसे कोई नौकरी दिला दें। रौनक को विश्वभंर दुबे अपने घर पर बुलाते हंै।
‘‘बेटा! रेणू हमारी इकलौती बेटी है। एक बार इसने कुछ ठान लिया तो करके मानती है। बताओ रिश्ते की बात लेकर कब तुम्हारे घर आउं।’’
‘‘आपसे कुछ छिपा तो नहीं है। मेरे पास इस साइकिल के अलावा कुछ नहीं है। कैसे रह पायेगी आपकी बेटी मेरे साथ।’’
‘‘वह तुम मुझ पर छोड़ दो। कल ही अपने सर्टिफिकेट्स लाकर मुझे दे दो। मैं टेंम्पररी बेसिस पर तुम्हें बहाल कर दूंगा बाद में परमानेंट हो जायेगा। बेटी के लिए तो करना ही पडे़गा।’’ फिर वहां हंसी के ठहाके लगते हैं, मिठाइयां बंटती हैं। कुछ ही दिनों में रौनक को नौकरी और रेणू दोनो मिल जाते हैं। मगर बात इतने पर खत्म नहीं होती। रेणू को रौनक का वह टूटा-फूटा घर, बीमार मां और दो छोटी बहनें बिल्कुल पसंद नहीं आते। वह रौनक को कहती है कि उसके साथ शहर में घरजमाई बन जाए जिसे रौनक सिरे से खारिज कर देता है।
‘‘मै ऐसा हरगिज नहीं करूंगा। तुम्हें अपने घर जाना है तो जा सकती हो।’’
‘‘सोच लो। मैं गई तो तुम्हारी नौकरी भी चली जाएगी।’’ रेणू ने गुस्से में कहा।
‘‘मैं जानता हूं। इस्तीफा वहां जाकर दे दूं या तुम्हीं लेकर जाओगी।’’ बात बिगड़ चुकी थी। रेणू चली जाती है। साथ में रौनक की नौकरी भी जाती है। तलाक के लिए रेणू के पिता ने वकील की ड्यूटी लगा दी थी।
रौनक की साइकिल फिर से किसी दूसरे शहर में चल पड़ती है परंतु इस बार रोमांटिक नहीं बल्कि प्रेरक गाने बज रहे थे। ‘‘जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबहो-शाम।’’
भीड़ लगती है। तालियां भी बजती है पर रौनक के करतब में वह तेजी नहीं थी। दोस्त श्याम के एनाउंसमेंट भी बेजान थे। खेल के अंतिम दिन की रस्म अदायगी में भी वही सब कुछ हुआ। नामी गिरामी लोग आए, इनाम दिया और चले गए। सबके जाने के बाद श्याम पैसे समेट रहा था और रौनक फर्श पर बिछे दरी पर निढ़ाल लेटा था कि एक बच्चे की आवाज से वह चैंक पड़ता है।
‘‘भैया! मैं हर रोज आपको साइकिल चलाते देखता रहा हूं। आप हीरो हंै।’’
‘‘अरे नहीं बेटा! रोज देखा। इसका मतलब स्कूल नहीं गए?’’ रौनक पूछता है।
‘‘स्कूल कैसे जाउं। फीस के पैसे नहीं है। बाबा अंधे है। मां पिछले साल मर गई। दीदी है। वह बीड़ी बनाने वाली फैक्टरी में काम करती है।’’ आंसू झिलमिलाने लगे थे उस बच्चे की आंखों में।
‘‘मुझे भी साइकिल चलाकर पैसे कमाना सीखा दीजिए ताकि दीदी को बाहर नहीं जाना पड़े। उसे लोग बहुत बातें कहते हंै।’’ तड़प उठा रौनक। वह उस बच्चे के घर चल पड़ता है जहां उसकी मुलाकात बच्चे के पिता और बहन से होती है। इनाम में मिले अपने सारे पैसे वह उसकी बहन शारदा को देकर कहता है कि इस बच्चे की स्कूल फीस भर दे और पढ़ाई बंद न करे।
‘‘आज आप दया कर रहे हैं। आगे क्या होगा। मेरी कमाई से तो घर का राशन ही आ सकता है।’’ शारदा ने अपना सच बताया।
‘‘मैं कोई दया नहीं कर रहा। अपने परिवार के साथ मेरी बीमार मां और दो छोटी बहनों को आप संभाल लो मैं बाहर का काम देख लूंगा। कर पाओगी?’’ शारदा अपने फटे दुपट्टे से मुंह ढंककर हंस पड़ती है। उसकी शीतल और मासूम मुस्कान ने रौनक की सारी थकावट दूर कर दी थी।
लेखकः मनोज सिन्हा (वरिष्ठ पत्रकार)