भारत की प्राचीन और महान शिल्पकलाओं और संस्कृतियों को देखनी हो तो गांवो और जनजातीय क्षेत्र में जाएं। अगर फिर भी समय ना मिले तो इंडिया गेट लॉन में चल रहे सरस मेलें में देशभर की शिल्पकलाओं से रुबरु हो सकते हैं। किसी-न-किसी रूप में इतिहास से जुडक़र अपनी गौरवशाली गाथा को बयां करती कलाएँ आपको यहां देखने को मिलेंगी। छत्तीसगढ़ के बस्तर ज़िले की ढोकरा कला भी इन्हीं कलाओं में से एक है। इस कला का दूसरा नाम घढ़वा कला भी है। यह कला प्राचीन होने के साथ-साथ अद्भूत है। शिल्पकला के यह कार्य मुख्यतः घसिया जाति के लोग करते हैं।
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जनजातीय कला का नमूना । Model of Tribal Art & Craft
विश्व प्रसिद्ध यह शिल्पकला जितनी प्राचीन है उतनी ही आकर्षक भी है। इतिहास के पन्ने बताते हैं कि इस कला का संबंध मोहन जोदड़ो से प्राप्त कांसे की मूर्ति से भी है। इस कला का उपयोग करके बनाई गई मूर्ति का सबसे पुराना नमूना मोहनजोदड़ो की खुदाई से प्राप्त नृत्य करती हुई लड़की की प्रसिद्ध मूर्ति है।
तांबा, जस्ता व रांगा आदि धातुओं के मिश्रण की ढलाई करके मूर्तियां, ज्वैलरी आदी बनाने की कला कम रोचक नही है। अंग्रेजी में वेक्स लॉस प्रोसेस कही जाने वाली इस विधि में मधुमक्खी के मोम का इस्तेमाल होता है। इस कला को मोम क्षय विधि भी कहते हैं। मिट्टी, मोम और धातु के प्रयोग से तैयार यह कला सहज ही सबको आकर्षित कर लेती है.
धातु से बनी कलाकृति को शिल्पकार मोम से आकार देता है। जो भी मूर्ति बनाते है उसका पहले मिट्टी से ढांचा तैयार किया जाता है. उसके बाद मिट्टी के ढांचे को मधुमक्खी के मोम से कवर करके उस पर आकृतियां बनाई जाती हैं। उसे दोबारा मिट्टी से कवर कर दिया जाता है। मिट्टी के दूसरी पर्त पर मोम पर बनाए गई आकृतियां उभर जाती है, फिर इस मिट्टी को आग में पाकाया जाता है जिसेस मोम पिघल जाता है और मोम की खाली हुई जगह को तरल धातु से भर दिया जाता है। तरल धातु भीतरी भागों में जाकर वही आकृति ले लेती है। ठंडा करने पर जब धातु ठोस हो जाती है तो उससे मिट्टी की पर्तों को हटाया जाता है। मूर्ति को फिनिशिंग देकर और सुंदर और आकर्षक बनाया जाता है।
छत्तीसगढ़ की कला । Art and Craft of Chhatisgarh
यह शिल्प कला छत्तीसगढ़ के कला और सांस्कृतिक वैभव के इतिहास को बताता है। आदिवासी शिल्पकला के इन शिल्पों में दो प्रकार के शिल्पों का निर्माण होता है, पहला देवी-देवताओं की मूर्ति और, दूसरा पशु आकृतियां जिनमें हाथी, घोड़े, मछली कछुआ और मोर आदि।
प्राचीन कला । Ancient Art
साढ़े चार पांच हजार वर्षों की यह समृद्ध कला परम्परा थोड़े परिवर्तन के साथ आज भी सुरक्षित है। आदिवासी समाज ने इस कला की परम्परा को धरोहर के रूप में न सिर्फ सुरक्षित रखा बल्कि इसे जीवन्त भी बनाये रखा है।
ढ़ोंकरा कला। Dhonkra Art
पारंपरिक, लोक आधारित आकर्षक ढ़ोंकरा कला मुर्तियों की मांग बढ रही है। यह कला अब एक व्यवसाय का रूप ले लिया है। विदेशी बाजार में भी ढ़ोकरा कला की सामानों की खास मांग रहती है। प्रांतीय स्तर से निकलकर राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शनियों में शिरकत कर ढोकरा शिल्पी अपनी पहचान बना भी रहे हैं।
हालांकि ढोकरा कारीगरों के सामने कई बाधाएं ओर समस्याएं भी है। जहां टैक्स प्रणाली से इनके द्वारा निर्मित मूर्तियों की बिक्री पर असर पड़ा, वहीं आधुनिक सस्ते सजावटी सामानों से प्रतिस्पर्धा में बाज़ार में ठिकना मुश्किल हो रहा है। लेकिन सरकार के सहयोग और कला को बचाए रखने की बैचेनी ने शिल्पकारों के होंसले को बढा रखा है।
(विकास सिंह)
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